जैन तीर्थंकर चौबीस ही क्यों होते है | Why 24 Tirthankaras in Jain

जैन तीर्थंकर चौबीस ही क्यों होते है?

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जैन भूगोल में अढ़ाई द्वीप क्षेत्रों का वर्णन मिलता है-जम्बुद्वीप, धातकी खण्ड, अर्द्धपुष्कर द्वीप। इन अढ़ाई द्वीप क्षेत्रों में पन्द्रह कर्मभूमि है- पांच भरत, पांच एरावत और पांच महाविदेह क्षेत्र। इन क्षेत्रों के एक सौ सत्तर (177) भूभाग ऐसे हैं जहाँ तीर्थंकर हो सकते हैं। एक समय में न्यूनतम 20 और अधिकतम 170 तीर्थंकर हो सकते हैं किंतु सर्वज्ञों की संख्या नौ करोड़ मानी गई है। इनमें मात्र दस भू भाग (पांच भरत, पांच एरावत) हैं जहाँ पर अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं।
महाविदेह क्षेत्र में काल का यह रूप नहीं है। वहाँ एक सदृश्य (अवसर्पिणी के चौथे आरे के समान) काल रहता है। वहाँ तीर्थंकर की निरन्तर विद्यमानता है। वहाँ धर्म का स्थाई रूप रहता है। भरत-एरावत में ऐसा नहीं होता है। इसका कारण है एक तीर्थंकर के होने के बाद दूसरे तीर्थंकर के उत्पन्न होने के बीच का समय स्वभावतः निर्धारित है। उस अन्तराल को जोड़ने से तीर्थंकरों के उत्पन्न होने का समय ही समाप्त हो जाता है।
प्रत्येक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल में एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का समय माना गया है। इस दृष्टि से चौबीस तीर्थंकरों के ही होने का अवकाश है, ज्यादा नहीं। शेष एक सौ साठ क्षेत्र महाविदेह में आ जाते हैं। वहां अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल नहीं है। एक तीर्थंकर के बाद दूसरे तीर्थंकर का अभ्युदय हो जाता है।

भगवन्तों ने क्यों बताये तीर्थंकर चौबीस

क्षेत्र विशेष को लेकर प्रत्येक काल-चक्र में चौबीस ही तीर्थंकर होते हैं, तेईस व पच्चीस नहीं हो सकते, ऐसा किसी शक्ति विशेष की ओर से कोई प्रतिबंध नहीं लगा हुआ है। वस्तुस्थिति यह है कि केवली भगवन्तों ने अपने ज्ञान से देखा कि अतीत के प्रत्येक काल-चक्र में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं और भविष्य में भी चौबीस ही तीर्थंकर होंगे। इसलिए उन्होंने यह कह दिया कि प्रत्येक काल-चक्र में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। यदि उनके ज्ञान में तीर्थंकर कम ज्यादा होते तो वे कम ज्यादा कह देते। परन्तु कम ज्यादा तीर्थंकर उन्होंने अपने ज्ञान में नहीं देखा इसलिए उन्होंने कम ज्यादा न बताकर चौबीस ही बताये तीर्थंकर चौबीस ही होते है ।
यह प्राकृतिक नियम है। प्रकृति के नियम या स्वभाव में मानव का कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता, वह तो अपने ढंग से पूर्ण होकर ही रहता है । यदि कोई कहे कि आग उष्ण क्यों होती है ? तो आप क्या उत्तर देंगे यही न कि यह उसका स्वभाव है। धुआं ऊपर की ओर क्यों जाता है, नीचे की ओर क्यों नहीं जाता? इसका समाधान भी यही करना होगा कि यह उसका स्वभाव है। ऐसे ही प्रकृति स्वभावानुसार अतीत काल-चक्र में 24 तीर्थंकर हुए हैं और अनागत काल-चक्र में 24 तीर्थंकर ही होंगे । इसलिए कहा गया है कि चौबीस तीर्थंकर ही होते हैं ।

यशस्तिलकचम्पूकाव्य ग्रन्थ

ज्योतिष शास्त्रानुसार प्रत्येक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल में 24 – 24 ही ऐसे श्रेष्ठतम मुहूर्त्त आते हैं, जिनमें जन्मा हुआ मनुष्य ही तीर्थंकर हो सकता है ।
आचार्य श्रीसोमदेवसूरिजी स्वलिखित ग्रन्थ ‘यशस्तिलकचम्पूकाव्य’ प्रबन्ध में फरमाते हैं

नियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः। . तिथि-तारा-ग्रहाम्भोधि-भूभृत्प्रभृतयो मताः॥

अर्थात् तिथि-वार, नक्षत्र, तारा, ग्रह, समुद्र, पर्वत इत्यादि सभी की संख्या नियत है, किन्तु उनकी संख्या इतनी ही क्यों है, इसका कोई कारण नहीं है, क्योंकि यह सब प्राकृतिक नियमानुसार होता है। उसी प्रकार तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही क्यों है, इसका कोई विशेष कारण नहीं है। यह सब प्रकृति के नियमों के अनुसार चलता आया है, जिसका कोई आदि और अंत नहीं है। एक दिन में 24 घंटे ही क्यों हैं? इसका कोई उत्तर नहीं है।
यदि वस्तुओं की संख्या नियत न हो तो तिथि, वार, नक्षत्र, तारा, ग्रह, समुद्र पर्वत आदि नियत क्यों माने गये ? जैसे ये बहुत होने पर भी इनकी संख्या नियत है।

हेमराजजी स्वामी ने तीर्थंकर चौबीस बताये

यही प्रश्न तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री मज्जयाचार्य ने मुनि अवस्था में अपने विद्यागुरु हेमराजजी स्वामी से पूछा – तीर्थंकर चौबीस ही क्यों ? हेमराजजी स्वामी ने फरमाया – यह एक अनादि नियम है । हमारे यहाँ के क्षेत्रीय कालक्रम में एक के बाद एक श्रृंखला में 24 चौबीस ही होते हैं। क्यों का प्रश्न प्रकृति के साथ नहीं जुड़ता । बताओ दिन-रात के घंटा 24 ही क्यों, पच्चीस क्यों नहीं होते और तेईस क्यों नहीं होते, यह नैसर्गिक विश्व स्थिति है। पांचों ही महाविदेह क्षेत्र में चार-चार तीर्थंकर सदा एक साथ विहरमान रहते हैं ।

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