क्यों हुआ था समुद्र मन्थन (Kyu Hua Tha Samudra Manthan)

क्यों हुआ था समुद्र मन्थन (Kyu Hua Tha Samudra Manthan)

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समुद्र मन्थन जिसका नाम सुनते ही प्रत्येक हिन्दू को देवो के देव महादेव के नील कंठ की याद आ जाती है और इस समुद्र मंथन ने ही भगवान शिव को एक और नाम नीलकंठ दिया था क्योकि समुद्र मंथन में निकले विष को पीने के कारण ही उनका कंठ नीला हो गया था। समुद्र मंथन में निकले अमृत के को बचाने के लिए श्री हरी विष्णु को मोहिनी अवतार लेकर राक्षसों से अमृत लाना पड़ा था। लेकिन बहुत कम लोग ही यह जानते होंगे कि आखिर क्या कारण था की देवताओ को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करना पड़ा था। अलग – अलग पुराणों में समुद्र मंथन से सम्बंधित अलग – अलग कथाये मिलती है।

क्यों हुआ था समुद्र मन्थन (Kyu Hua Tha Samudra Manthan)

विश्वकर्मा महापुराण के अनुसार दैत्य सदैव ही देवताओं से घृणा करते थे। दैत्यों को लगता था कि स्वर्ग में देवताओं को समस्त प्रकार के सुख उपलब्ध हैं। देवता और मनुष्य भगवान की आराधना संसार के कल्याण के लिए करते थे और दैत्य अपनी तामसिक कामनाओं को पूर्ण करने के लिए भगवान शिव और ब्रम्हा जी की कठोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न  करते थे। एक बार दैत्यों ने स्वर्ग पर अपना अधिकार स्तापित करने के लिए  देवताओं पर बार – बार आक्रमण किया किंतु देवताओं ने दैत्यों को बुरी तरह पराजित कर दिया।
युद्ध में बार – बार पराजित होकर दैत्यों का बल क्षीण हो गया था और बहुत से दैत्य युद्ध में मारे जा चुके थे। अंततः दैत्य अपनी समस्या लेकर दैत्य गुरू शुक्राचार्य के पास गये और सब कुछ विस्तारपूर्वक उन्हें कह सुनाया। शुक्राचार्य ने दैत्यों के कष्टो को सुनकर अपनी संजीवनी विद्या से उन सभी दैत्यों को जीवित कर दिया जो देवताओं के द्वारा युद्ध में मारे गए थे।
नवजीवन पाकर दैत्य फिर से युद्ध करने लगे। इस प्रकार युद्ध करते – करते  दैत्य मारे जाते तो शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें पुनः जीवित कर देते। अतएव दैत्यों के मर मर कर जीवित होने तथा फिर देवताओं से युद्ध करने के लिए आ पहुँचने से युद्ध की स्थिति ही बदल गयी।
भयंकर युद्ध के पश्चात  भी दैत्यों की संख्या उतनी ही बनी रहती। जिसका परिणाम यह हुआ कि देवताओं का साहस तूट गया। वे समझने लगे कि अब दैत्यों को पराजित नही किया जा सकेगा। और जब वे पराजित नही होगे तो उनकी मनमानी बहुत बढ़ जायेगी। जिससे देवताओं का जीवन संकटमय हो जाएगा।

तब सभी देवता अपनी परेशानी लेकर भगवान विष्णु के पास गये और देवताओ ने भगवान श्री हरी विष्णु को अपनी व्यथा कह सुनाई। भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा कि कुछ समय के लिए तुम दैत्यों से  संधि कर लो और उनसे कहो कि हम और तुम मिल कर सागर का मंथन करें। उसमें अनेक रत्नों के साथ अम्रत भी है। यदि हम लोग उसे प्राप्त कर लेंगे तो अम्रत पान करके देवता और दैत्य दोनो ही अजर अमर हो जायेंगे। इसमें हम दोनो का हित है। इसलिए हम दोनो को मिल कर सागर मंथन करना चाहिए|तुम्हारे इस प्रस्ताव से वह अवश्य सहमत हो जायेंगे वे समझेगे कि देवताओं की अपेक्षा दैत्य संख्या और बल दोनों ही द्रष्टि से अधिक शक्तिशाली हैं।
अतएव अम्रत निकल जाने पर वे देवताओं को मारकर सम्पूर्ण अम्रत स्वयं ले लेंगे और देवताओं को कुछ नहीं देंगे। परन्तु अम्रत निकल जाने पर मैं उनके इस भ्रम को तोड़ दूँगा और उनके हाथ में अम्रत की एक बूँद भी नहीं जाने दूँगा। संख्या में तुमसे अधिक होने पर भी वे इतने अधिक नही हैं कि अकेले समुद्र मंथन कर सके। इसलिए उन्हें विवश होकर इस कार्य में तुम्हारा सहयोग प्राप्त करना ही पडे़गा। इसलिए तुम लोग शीघ्र जाकर बुद्धिमत्तापूर्वक उनसे संधि करके उनके सम्मुख सागर मंथन का प्रस्ताव रखो।
भगवान विष्णु की आज्ञानुसार जब देवताओं ने दैत्यों के सम्मुख अपनी पराजय स्वीकार करके दैत्यों से संधि की बात की तो उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा।  साथ ही दैत्यों ने देवताओं के समुद्र मंथन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। क्योंकि दैत्य अकेले समद्र मंथन नही कर सकते थे।
इस प्रकार देवताओं का खोया हुआ आत्मबल और अमृत प्राप्त करने के उद्देश्य से देवताओ ने दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन किया गया था।

इसके अलावा विष्णु पुराण में एक दूसरी कथा बताई गयी है जोकि ऋषि दुर्वासा के द्वारा इन्द्र देव को दिए गए श्राप से जोड़ी है अगर आपको वो कथा भी जननी हो तो कमेन्ट करके जरूर बताये ।

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